अस्पताल के चक्कर काटते काटते डॉक्टरों से नफरत होने लगी। लेकिन मां की मौत के बाद सबसे ज्यादा नफरत हिंदू धर्म और इस धर्म को बचाए रखने वाले पाखंडियों से होने लगी। 15 अक्टूबर को सुबह करीब 7 बजे मां को लेकर हम लोग हरिद्वार के कनखल श्मशान घाट पहुंचे। लकड़ी कफन का प्रबंध किया। फिर घाट पर पंडित की लीला शुरू हुई। उन दो पंडित और चिता जलाने वाले का चेहरा अब भी याद है। मां को मुखाग्नि देने से पहले गंगाजल हाथ में लिए हम तीनों भाई पंडित के सामने बैठे थे। वो हमारे मुंह से दक्षिणा की राशि कहलवाना चाहता था। हमने कहा जो भी बन पड़ेगा दे देंगे। पंडितों का चेहरा लाल होने लगा। वो जिद कर रहा था कि जो भी दोगे उसे हाथ में गंगाजल लेकर अपने शब्दों से बयां करो। हम तीनों भाई और पापा हतप्रभ थे। मां की असमय मौत से टूटे हुए इन यमराजों के फेर में फंसे थे। हमने पूछा दक्षिणा कितना बनता है? उसका जवाब था तीन स्तर के दक्षिणा का प्रचलन है-
पहला (उत्कृष्ट) मतलब एक लाख या उससे ऊपर,
दूसरा (मध्यम) 50 हजार या उससे ऊपर,
तीसरा (निकृष्ट) 11 हजार रूपये
हमने सोचा भी नहीं था कि मां को जलाने के लिए सौदेबाजी करनी पड़ेगी। मां की इच्छा थी कि वो हरिद्वार आकर कुछ दिन रहे। जिंदा रहते वो आ न सकी इसलिए पापा हरिद्वार में ही दाह संस्कार करना चाहते थे। लेकिन यहां धर्म के सौदागरों का चेहरा देख मन खिन्न हो गया। वो बार बार हमें निकृष्ट होने का अहसास दिलाते रहे। मैंने दोनों पंडितों की बात नहीं मानी। उनसे थोड़ी बहुत बहस भी हो गई। आखिरकार बड़े भैया ने मां को मुखाग्नि दी। दोनों पंडित ये कहकर दूसरे शव के पास चले गए कि 4 घंटे में शव जलने के बाद वो दक्षिणा लेंगे। इशारों ही इशारों में वो ये भी समझा गए कि चिता सजाने वाले, चिता जलाने वाले और वहां मौजूद एक दो और लोगों को भी कुछ न कुछ देना पड़ेगा। हम सब इसी चिंतन में थे कि पता नहीं ये कितने पैसों में मानेगा। लेकिन मैंने भी ठान लिया था कि जब सौदेबाजी ही कर रहा है तो ढंग से करेंगे। पापा ने कहा कि 5 हजार रुपये दे देना लेकिन मैंने बात नहीं मानी। चिता जलने के ठीक बाद फुलिया को गंगा में प्रवाहित करने की बारी आई। हम सब फुलिया को गंगा में प्रवाहित करने लगे। उसी दौरान श्मशान घाट का एक आदमी बोल पड़ा ठहरो सिर वाले हिस्से का राख बचाकर रखना। जब आगे के हिस्से को प्रवाहित करने की बारी आई तो चिता जलाने वाले डोम महाराज फुलिया को गंगा की सीढ़ियों पर रखने को कहने लगे। हम कुछ समझ नहीं पा रहे थे। उसके कहे मुताबिक बाकी बचे फुलिया को सीढ़ियों पर डालने लगे। ये क्या वो तो राख पर पानी डालकर कुछ ढूंढ रहा था। सीढ़ियां उबर खाबर थी इसलिए हल्की राख गंगा में बह जा रही थी लेकिन कुछ सिक्के दिख रहे थे। वो उन सिक्कों को उठाकर अपनी जेब में रख रहा था। वो पागलों की तरह कुछ और ढूंढ रहा था। ठीक उसी वक्त एक पंडित भी पहुंच गया दोनों की गिद्ध नजरें किसी खास चीज को ढूंढने में लगी थी। तब समझ में आया कि मुखाग्नि से पहले मां के मुंह में सोने का टुकड़ा डाला था ये उसे ही ढूंढ रहे हैं। मां नाक में भी सोना पहने हुये थी शायद मुखाग्नि के दौरान इनकी नजर उस पर भी पड़ गई थी। मन व्यथित हो गया। इन लालचियों को देखकर घिन आने लगी। एक ने पूछा कुछ मिला तो दूसरा कमेंट करने से भी बाज नहीं आया बोला, पता नहीं सोना डाला भी था या नहीं। वो भली भांति जानता था कि मुंह में सोना डाला गया है फिर भी तंज कस रहा था। आखिरकार एक ‘गिद्ध’ को सफलता मिल गई। मैंने ध्यान से नहीं देखा लेकिन उसने दो छोटे टुकड़ों को अपनी जेब में डाला। उसके चेहरे का भाव देखकर समझ में आ रहा था कि शायद ये अपने मंसूबे में कामयाब हो गया है। अब बारी थी दक्षिणा की। दक्षिणा लेने के लिए छह लोग जमा हो गये। दोनों पंडित पहले बाकी लोगों को दक्षिणा दिलवाना चाहते थे। खैर हमने सौ डेढ़ सौ के हिसाब से बाकियों को निपटा दिया लेकिन पंडितों का विकराल मुंह फिर खुल गया। दोनों ने फिर तीन स्तर के दक्षिणा की याद दिलाई। फिर ये अहसास कराने लगे कि कम पैसे दोगे तो दाह संस्कार निकृष्ट माना जाएगा। मैंने सीधा जवाब दिया 500 रुपये दूंगा। पंडितों का मुंह बिचक गया वो खाने वाली नजरों से मुझे देखने लगे। मेरे चेहरे पर भी आक्रोश था। शायद दोनों पंडितों को लगा कि ये ज्यादा देने वाला नहीं है। जो अब तक 11 हजार से कम लेने को तैयार नहीं था एकाएक बोल पड़ा 500 में हम नहीं मानेंगे कम से कम 11 सौ रुपये तो दे दो। हमने भी चट 11 सौ रुपये निकालकर दे दिया। हमें लग रहा था जैसे मुक्ति मिली। लेकिन धर्म का आडंबर यहीं खत्म नहीं हो रहा है। अभी तो क्रिया कर्म बाकी था... आगे का अनुभव भी कम कड़वा नहीं रहा। जारी है ... धर्म से दिल घायल होता रहा।
पहला (उत्कृष्ट) मतलब एक लाख या उससे ऊपर,
दूसरा (मध्यम) 50 हजार या उससे ऊपर,
तीसरा (निकृष्ट) 11 हजार रूपये
हमने सोचा भी नहीं था कि मां को जलाने के लिए सौदेबाजी करनी पड़ेगी। मां की इच्छा थी कि वो हरिद्वार आकर कुछ दिन रहे। जिंदा रहते वो आ न सकी इसलिए पापा हरिद्वार में ही दाह संस्कार करना चाहते थे। लेकिन यहां धर्म के सौदागरों का चेहरा देख मन खिन्न हो गया। वो बार बार हमें निकृष्ट होने का अहसास दिलाते रहे। मैंने दोनों पंडितों की बात नहीं मानी। उनसे थोड़ी बहुत बहस भी हो गई। आखिरकार बड़े भैया ने मां को मुखाग्नि दी। दोनों पंडित ये कहकर दूसरे शव के पास चले गए कि 4 घंटे में शव जलने के बाद वो दक्षिणा लेंगे। इशारों ही इशारों में वो ये भी समझा गए कि चिता सजाने वाले, चिता जलाने वाले और वहां मौजूद एक दो और लोगों को भी कुछ न कुछ देना पड़ेगा। हम सब इसी चिंतन में थे कि पता नहीं ये कितने पैसों में मानेगा। लेकिन मैंने भी ठान लिया था कि जब सौदेबाजी ही कर रहा है तो ढंग से करेंगे। पापा ने कहा कि 5 हजार रुपये दे देना लेकिन मैंने बात नहीं मानी। चिता जलने के ठीक बाद फुलिया को गंगा में प्रवाहित करने की बारी आई। हम सब फुलिया को गंगा में प्रवाहित करने लगे। उसी दौरान श्मशान घाट का एक आदमी बोल पड़ा ठहरो सिर वाले हिस्से का राख बचाकर रखना। जब आगे के हिस्से को प्रवाहित करने की बारी आई तो चिता जलाने वाले डोम महाराज फुलिया को गंगा की सीढ़ियों पर रखने को कहने लगे। हम कुछ समझ नहीं पा रहे थे। उसके कहे मुताबिक बाकी बचे फुलिया को सीढ़ियों पर डालने लगे। ये क्या वो तो राख पर पानी डालकर कुछ ढूंढ रहा था। सीढ़ियां उबर खाबर थी इसलिए हल्की राख गंगा में बह जा रही थी लेकिन कुछ सिक्के दिख रहे थे। वो उन सिक्कों को उठाकर अपनी जेब में रख रहा था। वो पागलों की तरह कुछ और ढूंढ रहा था। ठीक उसी वक्त एक पंडित भी पहुंच गया दोनों की गिद्ध नजरें किसी खास चीज को ढूंढने में लगी थी। तब समझ में आया कि मुखाग्नि से पहले मां के मुंह में सोने का टुकड़ा डाला था ये उसे ही ढूंढ रहे हैं। मां नाक में भी सोना पहने हुये थी शायद मुखाग्नि के दौरान इनकी नजर उस पर भी पड़ गई थी। मन व्यथित हो गया। इन लालचियों को देखकर घिन आने लगी। एक ने पूछा कुछ मिला तो दूसरा कमेंट करने से भी बाज नहीं आया बोला, पता नहीं सोना डाला भी था या नहीं। वो भली भांति जानता था कि मुंह में सोना डाला गया है फिर भी तंज कस रहा था। आखिरकार एक ‘गिद्ध’ को सफलता मिल गई। मैंने ध्यान से नहीं देखा लेकिन उसने दो छोटे टुकड़ों को अपनी जेब में डाला। उसके चेहरे का भाव देखकर समझ में आ रहा था कि शायद ये अपने मंसूबे में कामयाब हो गया है। अब बारी थी दक्षिणा की। दक्षिणा लेने के लिए छह लोग जमा हो गये। दोनों पंडित पहले बाकी लोगों को दक्षिणा दिलवाना चाहते थे। खैर हमने सौ डेढ़ सौ के हिसाब से बाकियों को निपटा दिया लेकिन पंडितों का विकराल मुंह फिर खुल गया। दोनों ने फिर तीन स्तर के दक्षिणा की याद दिलाई। फिर ये अहसास कराने लगे कि कम पैसे दोगे तो दाह संस्कार निकृष्ट माना जाएगा। मैंने सीधा जवाब दिया 500 रुपये दूंगा। पंडितों का मुंह बिचक गया वो खाने वाली नजरों से मुझे देखने लगे। मेरे चेहरे पर भी आक्रोश था। शायद दोनों पंडितों को लगा कि ये ज्यादा देने वाला नहीं है। जो अब तक 11 हजार से कम लेने को तैयार नहीं था एकाएक बोल पड़ा 500 में हम नहीं मानेंगे कम से कम 11 सौ रुपये तो दे दो। हमने भी चट 11 सौ रुपये निकालकर दे दिया। हमें लग रहा था जैसे मुक्ति मिली। लेकिन धर्म का आडंबर यहीं खत्म नहीं हो रहा है। अभी तो क्रिया कर्म बाकी था... आगे का अनुभव भी कम कड़वा नहीं रहा। जारी है ... धर्म से दिल घायल होता रहा।
टिप्पणियाँ
कोई धर्म गलत नहीं होता ....हाँ उनके ठेकेदार और पालनकर्ता गलत हो सकते हैं ...आपका गुस्सा जायज़ है और आपके सवाल भी......पर यही आलम सभी धर्मों का है ...यशपाल का एक उपन्यास पढ़ा था .....बटवारे की पृष्ठभूमि पर आधारित ...नाम याद नहीं....उसमें इन ठेकेदारों की कलई खोलने का प्रयास किया गया है.
धर्म के इस विकृत स्वरूप के लिए हमारा पूरा समाज दोषी है ...धर्म नहीं ....आप तनिक धैर्य और गहराई से विचार करें तो बात स्पष्ट हो जायेगी ........हमें धर्म से नफ़रत नहीं करना है बल्कि उसके विकृत स्वरूप को सुधार कर सही ढंग से पालन करने के योग्य बनाना है. ध्यान रखिये चर्चों और मस्जिदों में भी यही सब होता है ......आक्रोश को त्याग कर सीधे पैथोलोजी समझने का प्रयास कीजिये.