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ओम केनेषितं पतति प्रेषितं मन:।।
((किससे सत्ता स्फूर्ति पाकर मन जो विषयों में जाता है..))
चक्षु: श्रोतं क उ देवो युनक्ति।।
((नेत्र और कान को कौन नियुक्त करते हैं))
न तत्र चक्षुर्गच्छति, न वाग्गच्छति...।।
((न वहां आंख जा सकती है, न वाणी पहुंच सकती है))
विद्धि नेदं यदिदमुपासते...।। ((कई बार ये मंत्र है))
((जिन्हें ऐसा जानकर लोग उपासना करते हैं वो ब्रह्म नहीं हैं))
...नो न वेदेति वेद च।। ((ये मंत्र भी उपनिषद् में कई बार आया है))
((नहीं जानता हूं ये भी नहीं कहता।))
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातम् अविजानताम्।।
((जानने का अभिमान रखने वालों के लिए जाना हुआ नहीं है.. जिन्हें अभिमान नहीं है उनका तो जाना ही हुआ है))
...अग्नि अहमस्मीत्य ब्रवीज्जातवेदा।।
((मैं ही प्रसिद्ध अग्नि हूं, मैं ही जातवेदा के नाम से प्रसिद्ध हूं।))
...वायुर्वा अहमस्मीत्य ब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति।।
((मैं ही प्रसिद्ध वायुदेव हूं, मैं ही मातरिश्वा के नाम से प्रसिद्ध हूं।।))
सा ब्रह्मेति होवाच..।।
((उमा देवी ने कहा, वे तो परब्रह्म परमात्मा हैं।))
तस्यैष आदेशो यदेतद्विद्युतो व्यद्युतदा।।
उस ब्रह्म का आदेश है, यह बिजली की तरह चमकना और छिपना।।
इती न्यमीमिषद् इत्यअधिदैवतम्।।
और आंख का खुलना और बंद हो जाना। इस प्रकार यह अधिदैवतम यानि ब्रह्म का उपाख्यान है।
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