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राहत सामग्री का बंदरबांट

यह लेख जनसत्ता(दैनिक अखबार) में प्रकाशित हो चुका है।

नोएडा में श्री श्री रविशंकर ने ब्रह्मनाद का आयोजन कर एक मिसाल कायम की। कार्यक्रम का आयोजन बिहार में बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए किया गया था। इस कार्यक्रम से पहले भी श्री श्री रविशंकर की ओर से बिहार में बाढ़ पीड़ितों को तमाम तरह की सहायता राशि बांटी गई। अब उनकी योजना अपना सबकुछ खो चुके लोगों को घर बनाकर देना है। रविशंकर जी की सहायता तो लोगों तक पहुंच रही है लेकिन सरकारी सहायता बड़ी मुश्किल से बाढ़ पीड़ितों की धधकती अंतड़ी तक पहुंच पा रही है। सरकारी राहत सामग्री दरअसल उन लोगों तक पहुंच रही है जो इसके असली हकदार नहीं हैं। गैर सरकारी आंकड़ों की मानें तो करीब एक लाख लोग बाढ़ की भेंट चढ़ गय़े। जो बचे उनका सबकुछ लुट चुका था। सहायता के लिए केन्द्र सरकार ने राज्य को अच्छी खासी रकम दी। लेकिन सबसे शर्मनाक बात तो ये है कि जो बाढ़ पीड़ित नहीं हैं उनके बीच भी सामग्री धड़ल्ले से बांटी जा रही है। इसके पीछे पूरा गणित फिट है। लोक सभा चुनाव आने वाला है ऐसे में छुटभैया नेता अपना जनाधार बढ़ाने के लिए अपने लोगों को राहत सामग्री पाने में पूरी मदद कर रहे हैं। लेकिन ये छुटभैया नेता भी फ्री में राहत सामग्री नहीं दिला रहे। एक प्रोसेस के तहत सारा खेल चल रहा है। दरअसल सरकारी राहत सामग्री गांवों में प्रखंड स्तर पर बांटी जाती है। राहत सामग्री पाने के उचित हकदार को ढूंढने के लिए एक समिति बनी हुई है। लेकिन ये समिति गांवों का दौरा करना मुनासिब नहीं समझती। इनका खेल बड़ा निराला है। छुटभैये नेता बाढ़ पीड़ितों की लिस्ट बनाकर लाते हैं और इस समिति के सामने पेश कर देते हैं। समिति के अपने नियम हैं जो उचित हकदार नहीं है उसे राहत सामग्री देने के रेट फिक्स कर दिये गये हैं। पूरे दो सौ रुपये देकर कोई भी अपने आपको आसानी से बाढ़ पीड़ित बना लेता हॆ। फिर खेल शुरू होता ब्लॉक प्रमुख और सरकारी अधिकारियों जहां इस लिस्ट को स्वीकृति मिल जाती है। समिति में पास किये गये लिस्टेड लोगों को जल्द ही 50 किलो गेंहूं, 50 किलो चावल और 250 रुपये मिल जाते हैं। अब यहां फिर एक खेल शुरू होता है। कुछ लोग राहत सामग्री अपने घर ले जाते हैं लेकिन ज्यादातर इसे बाजार में बेच देते हैं। चूंकि चावल बहुत अच्छे नहीं होते इसिलिए बाजार में इसका रेट ज्यादा नहीं है। हिसाब लगाने पर 50 किलो चावल 8 रुपये प्रति किलो के हिसाब से 400 रुपये में और गेंहूं 10 रुपये प्रति किलो के हिसाब से 500 रुपये में बिक जाता है। मतलब साफ है कि 900 रुपये अनाज के हुए और 250 रुपये कैश तो भला किसी को 200 रुपये देने में मलाल क्यों हो। हाथों हाथ फायदे का सौदा है सो लोग इसे एक स्कीम समझकर छुटभैये नेताओं की शरण में पहुंचकर अपने आपको बाढ़ पीड़ित घोषित करवा लिया। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं जो राहत सामग्री सबकुछ खो चुके लोगों के लिए भेजी गई उसका किस तरह से बंदरबांट हुआ है। अगर इसकी जांच हो एक बड़ा घोटाला सामने आ सकता है। एक ऐसा घोटाला जो जिसमें सबकी मिली भगत है। छुटभैये नेता से लेकर एक अधिकारी तक। जब ब्लॉक स्तर पर इस तरह का खेल चल रहा है तो कैसे भरोसा कर लें कि उपर के अधिकारियों को इसकी भनक नहीं होगी। बाढ़ पीड़ितों के नाम पर होने वाली इस करोड़ों की कमाई को पचाना महज कुछ अधिकारियों के वश की बात नहीं है। 2004 में भी बाढ़ पीड़ितों के नाम 11 करोड़ का घोटाला हुआ जिसमें पटना के पूर्व जिलाधिकारी गौतम गोस्वामी जो अपनी इमानदारी के लिए टाइम पत्रिका तक में जगह पाकर सुर्खियां बटोर चुके थे का नाम सामने आया था। गोस्वामी पर आरोप लगे थे कि उसने बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए एक कंपनी को बाढ़ पीड़ितों के लिए आबंटित 17 करोड़ में से 11 करोड़ रुपये दिलवाये। लेकिन बाद में पता चला कि वो कंपनी फर्जी थी और 11 करोड़ रुपये की राहत सामग्री बांटी ही नहीं गई। अब चार साल बाद जब बिहार में प्रलयंकारी बाढ़ आई तो घोटालेबाजों की बांछें खिल गई। एक बार फिर कमाने खाने का सुनहरा मौका जो मिलने वाला था। लेकिन इस बार घोटाले का स्वरूप थोड़ा बदला हुआ है। घोटाले की शुरुआत निचले स्तर से होते हुए उपर पहुंच रही है। अगर भविष्य में सरकार इसकी कोई जांच करवाती है तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आएंगे। शायद चाणक्य ने ऐसी ही स्थिति को देखकर लिखा था कि, “सरकारी धन का दुरुपयोग करना उसी तरह नामुमकिन है जिस तरह जीभ पर रखी हुई चीनी को न चखना।“ चाणक्य की इस लाइऩ से छोटे मोटे घोटाले की बू आती है लेकिन बाढ़ राहत सामग्री बांटने के नाम पर जो हुआ उससे तो ऐसा लगता है कि अधिकारी जीभ पर रखी पूरी चीनी ही गला देने की फिराक में हैं। अभी भी बिहार में अपना सबकुछ गंवा चुके हजारों लोग राहत सामग्री की आस लगाए बैठे हैं। आप अंदाजा लगा सकते हैं उस घड़ी का जब लोग अपने घरों में चैन से सोये हुए थे और एकाएक 20 फीट ऊंची लहर सबकुछ बहा ले गई। लोग पेड़ के पत्तों की तरह बह गये, मर गये। जो बच गये वो राहत सामग्री को तरस रहे हैं। बहुत कम लोग खुशकिस्मत रहे जिन्हें बेहतर तरीके से सरकारी मदद मिली ज्यादातर को स्वयंसेवी संस्थाओं से ही मदद मिली है। सरकारी राहत सामग्री बांटने का ये सच स्थानीय लोगों से छिपा नहीं है। अंदर ही अंदर इसकी गंध उपर तक पहुंच रही है तभी बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए उठे हाथों को सरकार पर भरोसा नहीं है। जो लोग बाढ़ पीड़ितों की मदद करना चाहते हैं वो सरकारी संस्थाओं के बजाय गैर सरकारी संस्था या फिर खास तौर पर समाजसेवियों द्वारा बनाये गये संस्था को ही फंड देना बेहतर समझते हैं। बाढ़ पीड़ितों की मदद करने वाले ये कतई नहीं चाहते कि उनकी भेजी राहत सामग्री किसी गैर जरूरतमंद से कुछ पैसे लेकर बांट दी जाए।
"' कौशल कुमार कमल"'

टिप्पणियाँ

सरकारी तंत्र से ईमानदारी की उम्मीद करना मूर्खता है। क्यों की हमारा बिल्कुल भ्रष्ट हो चुका है। वह तो इस बात की बांट जोहते हैं कि कब कोई विपदा आएं और उन्हें राहत के नाम पर अपनी जेंबें भरने को मिले।

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