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मौत पर भोज पार्ट-3


हरिद्वार से दिल्ली पहुंचे और दूसरे दिन सुबह सीमांचल एक्सप्रेस से पूर्णियां रवाना हो गए। सारे लोग साथ थे, दो सीट दूसरी बॉगी में थी। दुखी तो हम सारे ही थे, आफत हम सब पर टूटी थी लेकिन पापा तो जैसे टूट ही गए थे। वो दूसरी बॉगी में अकेले ही रहना चाहते थे। काफी मनाने के बाद वो दूसरे पैसेंजर से सीट एक्सचेंज करने को राजी हुए। दूसरे दिन हमलोग गांव पहुंचे वहां पहले से ही समाज के लोग इकट्ठा थे। मेरी 100 साल की दादी पर नजर पड़ते ही पापा फूट-फूट कर रोने लगे। घर की एक एक दीवार में मां बसी थी। हर हवा के झोंके मां की याद दिला रहे थे। हम सब फूट-फूट कर रोने लगे। परिवार समाज के लोग इस घड़ी में अपना कर्तव्य निभाते हुए सांत्वना दे रहे थे। लेकिन दुख उस वक्त हुआ जब किसी ने खाने तक को नहीं पूछा। रात हुई तो समाज के लोग अपने घर चले गए। एक तो मां का गम ऊपर से लंबी दूरी से आने के बाद की थकान। पापा समाज की प्रवृति से वाकिफ से उन्होंने घर पहुंचने से पहले हमें बता दिया था कि घर में चावल-दाल तो है लेकिन सब्जियां बाजार से खरीद लो। उम्मीद मत करना कि रात को कोई खाने को भी पूछेगा। गांव के लोगों में अब उतनी आत्मीयता नहीं रही। घर परिवार के लोग भी अब पहले जैसे नहीं रहे। खाने का मन तो नहीं था लेकिन जिंदा रहने के लिए मन को कठोर करना पड़ा। खुद से खाना बनाया और थोड़ा-थोड़ा खाकर सो गए। दूसरे दिन सुबह से ही सांत्वना देने वालों के आने का सिलसिला जारी रहा। फिर सतलहन से एक दिन पहले गांव के लोगों की मीटिंग हुई। हर मौत के बाद ये बैठक होती थी। इस बैठक में क्रिया- कर्म और भोज भात के बारे में चर्चा का प्रचलन है। बुजुर्गों ने मां की आत्मा की शांति के लिए लंबी लिस्ट बना दी। क्रिया कर्म की लिस्ट देख दिमाग चकरा गया। इसके बाद भोज का खर्चा अलग से। बैठक में ये तय हुआ कि कुल खर्च 2 लाख रुपये के करीब आएगा। महंगाई भी बढ़ गई है। भोज का सिलसिला तो सतलहन से ही शुरू हो गया। हालांकि उस सिर्फ अपने टोले के लोगों को ही खिलाने का प्रचलन है। ब्रह्मण तब तक नहीं खाएंगे जब तक कि हम सब शुद्ध नहीं हो जाते। ब्रह्मण तो हमारे घर की चाय भी नहीं पीते। घर में गरूड़ पुराण का पाठ नियमित रूप से चल रहा था। गरुड़ पुराण में बताया गया है कि कैसे आप अपने पाप से छुटकारा पा सकते हैं। धरती पर किए पाप की सजा यमराज के दूत देते हैं। हजारों तरह के नर्क होते हैं और हर इंसान के पाप के मुताबिक नर्क का द्वार खुलता है। मृतक आत्मा को ज्यादा कष्ट न हो इसके लिए दान का वर्णन है। गरूड़ पुराण के मुताबिक दान देने लगते तो हमारे परिवार में भुखमरी की नौबत आ जाती है। जमाना कहां से कहां चला गया है लेकिन पंडित गरूड़ पुराण पढ़कर बताते हैं कि अगर आपका पति स्वर्गवासी हो गया है तो आपको सति हो जाना चाहिए। सती होने का तरीका भी बताया गया है। पति की चिता के ऊपर किस तरह बैठना है ये भी बताया गया है। गरूड़ पुराण में लिखा है कि ब्रह्मणों के घर मौत होने पर नखवाल 10वें दिन हो। यानि कि ब्रह्मण जाति के लोग जल्दी शुद्ध होंगे। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इतनी जल्दी शुद्ध नहीं होंगे। जब मैंने अपने पंडित से पूछा कि हमलोग 10 दिन में शुद्ध क्यों नहीं हो सकते तो उनका कहना था कि कलयुग में धर्म की हानी हुई है इसलिए आपलोग भी अब नियम बदलकर 10 दिनों में नखबाल कर सकते हैं। कहीं न कहीं कहने का मतलब ये था कि हम लोग अधर्मी हो गए हैं इसलिए 10 में करने की बात कर रहे हैं। हम तीनों भाई भोज-भात के पक्ष में नहीं थे। एक तो मां की मौत ऊपर से 2 लाख रुपये का खर्च। पंडितों ने इतना डरा दिया है कि अभी भी लोग इस परंपरा से हटने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। जब पापा से बात की तो वो रोने लगे बोले कि मां की आत्मा को शांति कैसे मिलेगी। समाज के कुछ लोगों ने तो हर कर दी जो दो दिन पहले मौत पर सांत्वना दे रहे थे वही अब बेहतर हलवाई मंगाने की बात कर रहे थे। एक सज्जन जो रिश्ते में मेरे चाचा लगते हैं पापा को कह रहे थे कि इलाके में इज्जत का सवाल है पांच-छह तरह की मिठाई तो जरूर रखना। मेरी एक न चली। मामा मुझे समझा रहे थे, कुछ मत बोलो नहीं तो पापा को कष्ट होगा। मैंने बैठकी में भी भोज-भात का विरोध किया लेकिन कोई फायदा नहीं...। दिल मसोस कर सारी तैयारी में शामिल होता रहा। सतलहन के बाद नखबाल के दिन भी भोज हुआ। एकादशा और द्वादशा के भोज के लिए हलवाई 10 हजार के मेहनताना पर माना। क्रिया-कर्म और भोज में करीब 2 लाख रुपये खर्च हो गए। बावजूद इसके कुछ लोगों को सब्जी में नमक ज्यादा और कम होने की शिकायत होती रही। हद तो तब हो गई जब लोगों को खाना खिलाने वाले गांव के युवकों की टोली ने दारू की मांग की। बेहयाई भरी मांग को भी पूरी करनी पड़ी। इस मांग में मेरे परिवार के लोग भी शामिल थे। बातें बहुत हैं और क्या क्या लिखूं।

टिप्पणियाँ

कौशल जी ! मुझे तो आपके ऊपर ही गुस्सा आ रहा है ......जब आप समझ रहे हैं हैं कि यह गलत है.....यो उसमें शामिल क्यों हो रहे हैं ......पंडितों के इस पाखण्ड ने हिन्दू धर्म और समाज को कलंकित किया है .....कहीं न कहीं हम सब दोषी हैं ....हम अपनी भावनाओं का दोहन किये जाने से लोगों को रोक नहीं पा आरहे हैं ........पर कब तक चलेगा यह सब ? यदि शिक्षित समुदाय भी दृढ़ता पूर्वक इसे रोक पाने में सक्षम नहीं हो पा रहा है ...तो और किससे आशा की जायेगी . कौशल जी हमें नयी परम्परा शुरू करनी होगी . अभी आगे भी कुछ काम होंगे .........ध्यान रखियेगा ....अब पंडितों के चक्कर में मत पड़िएगा.

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