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पार्ट-2, धर्म से दिल घायल होता रहा

अस्पताल के चक्कर काटते काटते डॉक्टरों से नफरत होने लगी। लेकिन मां की मौत के बाद सबसे ज्यादा नफरत हिंदू धर्म और इस धर्म को बचाए रखने वाले पाखंडियों से होने लगी। 15 अक्टूबर को सुबह करीब 7 बजे मां को लेकर हम लोग हरिद्वार के कनखल श्मशान घाट पहुंचे। लकड़ी कफन का प्रबंध किया। फिर घाट पर पंडित की लीला शुरू हुई। उन दो पंडित और चिता जलाने वाले का चेहरा अब भी याद है। मां को मुखाग्नि देने से पहले गंगाजल हाथ में लिए हम तीनों भाई पंडित के सामने बैठे थे। वो हमारे मुंह से दक्षिणा की राशि कहलवाना चाहता था। हमने कहा जो भी बन पड़ेगा दे देंगे। पंडितों का चेहरा लाल होने लगा। वो जिद कर रहा था कि जो भी दोगे उसे हाथ में गंगाजल लेकर अपने शब्दों से बयां करो। हम तीनों भाई और पापा हतप्रभ थे। मां की असमय मौत से टूटे हुए इन यमराजों के फेर में फंसे थे। हमने पूछा दक्षिणा कितना बनता है? उसका जवाब था तीन स्तर के दक्षिणा का प्रचलन है- पहला (उत्कृष्ट) मतलब एक लाख या उससे ऊपर, दूसरा (मध्यम) 50 हजार या उससे ऊपर, तीसरा (निकृष्ट) 11 हजार रूपये हमने सोचा भी नहीं था कि मां को जलाने के लिए सौदेबाजी करनी पड़ेगी। मां की

पार्ट-2, धर्म से दिल घायल होता रहा

अस्पताल के चक्कर काटते काटते डॉक्टरों से नफरत होने लगी। लेकिन मां की मौत के बाद सबसे ज्यादा नफरत हिंदू धर्म और इस धर्म को बचाए रखने वाले पाखंडियों से होने लगी। 15 अक्टूबर को सुबह करीब 7 बजे मां को लेकर हम लोग हरिद्वार के कनखल श्मशान घाट पहुंचे। लकड़ी कफन का प्रबंध किया। फिर घाट पर पंडित की लीला शुरू हुई। उन दो पंडित और चिता जलाने वाले का चेहरा अब भी याद है। मां को मुखाग्नि देने से पहले गंगाजल हाथ में लिए हम तीनों भाई पंडित के सामने बैठे थे। वो हमारे मुंह से दक्षिणा की राशि कहलवाना चाहता था। हमने कहा जो भी बन पड़ेगा दे देंगे। पंडितों का चेहरा लाल होने लगा। वो जिद कर रहा था कि जो भी दोगे उसे हाथ में गंगाजल लेकर अपने शब्दों से बयां करो। हम तीनों भाई और पापा हतप्रभ थे। मां की असमय मौत से टूटे हुए इन यमराजों के फेर में फंसे थे। हमने पूछा दक्षिणा कितना बनता है? उसका जवाब था तीन स्तर के दक्षिणा का प्रचलन है- पहला (उत्कृष्ट) मतलब एक लाख या उससे ऊपर, दूसरा (मध्यम) 50 हजार या उससे ऊपर, तीसरा (निकृष्ट) 11 हजार रूपये हमने सोचा भी नहीं था कि मां को जलाने के लिए सौदेबाजी करनी पड़ेगी। मां की इच्छा थ

काहे का धर्म, काहे का भगवान ? पार्ट-1

मैं किसी धर्म को क्यों मानता हूं। मैं हिंदू क्यों कहलाता हूं। जबसे होश हुआ है कभी शपथ पत्र पर हस्ताक्षर तो नहीं किया कि मैं हिंदू हूं और जीवनभर हिंदू रहूंगा। हिंदू ही क्यों मुसलमान, सिख या फिर किसी और धर्म के होने का भी तो प्रमाणपत्र नहीं है मेरे पास। हां मैं हिंदू कहलाता हूं। सिर्फ इसलिए कि मैं एक राजपूत घर में पैदा हुआ जो कि हिंदू धर्म की एक जाति है। बचपन से घरवालों ने जैसा कहा, वैसा किया। भगवान और अल्लाह में भेद करना सिखाया। अपने- पराये में भेद करना सिखाया। जो सिखाया प्यार से सीखता गया। छिपकली को हिंदू और मकरे को मुसलमान समझने लगा। छिपकली को बचाकर और मकरे को मारकर गर्व होता था। लगता था चलो आज मुसलमानों को कुछ तो नुकसान पहुंचाया। मानसिकता बनी मुसलमान गंदे होते हैं। हालांकि मेरे घर दादा के एक दोस्त आते थे अब भी आते हैं जो मुसलमान हैं। दादा उन्हें अपने भाई के समान मानते थे। हमलोगों को सिखाया गया था कि उनके पैर छुने हैं। हम छुते भी थे लेकिन उस वक्त कोई नफरत नहीं होती थी। मन में एक सवाल जरूर कौंधता था जब मुसलमान गंदे होते हैं तो मतुल दादा गंदे क्यों नहीं हैं। लेकिन वो जिस तरीके से घर में

काहे का धर्म, काहे का भगवान ?

मैं किसी धर्म को क्यों मानता हूं। मैं हिंदू क्यों कहलाता हूं। जबसे होश हुआ है कभी शपथ पत्र पर हस्ताक्षर तो नहीं किया कि मैं हिंदू हूं और जीवनभर हिंदू रहूंगा। हिंदू ही क्यों मुसलमान, सिख या फिर किसी और धर्म के होने का भी तो प्रमाणपत्र नहीं है मेरे पास। हां मैं हिंदू कहलाता हूं। सिर्फ इसलिए कि मैं एक राजपूत घर में पैदा हुआ जो कि हिंदू धर्म की एक जाति है। बचपन से घरवालों ने जैसा कहा, वैसा किया। भगवान और अल्लाह में भेद करना सिखाया। अपने- पराये में भेद करना सिखाया। जो सिखाया प्यार से सीखता गया। छिपकली को हिंदू और मकरे को मुसलमान समझने लगा। छिपकली को बचाकर और मकरे को मारकर गर्व होता था। लगता था चलो आज मुसलमानों को कुछ तो नुकसान पहुंचाया। मानसिकता बनी मुसलमान गंदे होते हैं। हालांकि मेरे घर दादा के एक दोस्त आते थे अब भी आते हैं जो मुसलमान हैं। दादा उन्हें अपने भाई के समान मानते थे। हमलोगों को सिखाया गया था कि उनके पैर छुने हैं। हम छुते भी थे लेकिन उस वक्त कोई नफरत नहीं होती थी। मन में एक सवाल जरूर कौंधता था जब मुसलमान गंदे होते हैं तो मतुल दादा गंदे क्यों नहीं हैं। लेकिन वो जिस तरीके से घर में

गंदे पत्रकार, गंदी पत्रकारिता

इस हमाम में सब नंगे हैं। पत्रकारों की जमात में नंगों की कमी नहीं है। जब भारत गुलाम था, पत्रकार सच्चे थे। वो भारत को आजादी दिलाने के लिए लिखते थे। आजादी मिल गई तो पत्रकारों का चरित्र बदलने लगा। छोटे से बड़े सभी पत्रकार कमाने के फेर में लग गए। पत्रकारिता एक व्यवसाय के रूप में उभरने लगा तो गंदगी बढ़ने लगी। स्ट्रिंगर से लेकर रिपोर्टर और संपादक तक नंगे होने लगे। हालांकि कुछ पत्रकार अब भी इमानदार बने रहे लेकिन इनकी संख्या न के बराबर ही रही। पत्रकारों को बेईमान बनने के पीछे कई कारण रहे हैं। स्ट्रिंगर और छोटे रिपोर्टर इसलिए दलाल बन गए हैं कि क्योंकि उनकी सैलरी बहुत ही कम होती है। इसमें मीडिया संस्थानों की महती भूमिका होती है। सभी टीवी चैनल या अखबार मालिकों को पता है कि स्ट्रिंगर के परिवार का पेट महज 2 हजार या 3 हजार रूपये महीना की सैलरी में भरने वाला नहीं है। स्ट्रिंगर तो गांव और ब्लॉक स्तर पर जमकर दलाली करते हैं। वहां इनका बड़ा रूतवा होता है। स्ट्रिंगर पत्रकारिता से ज्यादा दलाली और पंचायत करने में अपना बड़प्पन समझते हैं। थानों में दरोगाजी के सामने ऐसे पत्रकारों की बड़ी इज्जत होती है। इतना ही

हिंदी न्यूज चैनल वाले चोर हैं

आखिरकार नव भारत टाइम्स ने ये साबित कर दिया कि ज्यादातर हिंदी न्यूज चैनव वाले अखबार से या अखबार की वेबसाइट से खबर चुराते हैं। कभी कभी तो अखबार की Exclusive खबर पर भी हाथ साफ कर देते हैं। एक अप्रैल को नवभारत टाइम्स ने चैनलों को रंगे हाथों पकड़ा ही नहीं... दर्शकों के सामने नंगा भी कर दिया। हुआ यूं कि एक अप्रैल को नवभारत टाइम्स पर ‘सानिया को सास की नसीहत’ की खबर छपी। खबर में लिखा था कि सानिया की सास नहीं चाहती कि वो स्कर्ट पहनकर टेनिस खेलें और पराए मर्दों से ज्यादा घुले मिले। इतना ही नहीं नवभारत टाइम्स की वेबसाइट पर सानिया की सास का नाम और सास का इंटरव्यू छापने वाले अखबार का भी नाम दिया गया था। फिर क्या था हिंदी चैनलों के बड़े-बड़े पत्रकार इस खबर को पहले दिखाने के चक्कर में ग्राफिक्स बनवाने लगे। कूद कूद कर जूनियर को जल्दी खबर करने के लिए कहने लगे। कुच चैनल तो चेप्टर (text gfx) के साथ खबर लेकर लाइव उतर गए। पाकिस्तान से फोनो चलने लगा। पाकिस्तान के भी कुछ रिपोर्टर जैसे भारतीय न्यूज चैनलों में फोनो देने के लिए तैयार ही बैठे रहते हैं। एक चैनल पर ‘सानिया को सास की नसीहत’ खबर चली नहीं कि दूसरे चै

हिजड़ा मतलब गुंडा !

रात के 12 बजे ऑफिस से घर के लिए निकला। लक्ष्मी नगर में साईं के भक्त भंडारा कर रहे थे। लोगों की लंबी लाइन लगी थी। विश्वास नहीं हो रहा था कि रात के साढ़े 12 बजे महिला पुरूष भंडारे का लुत्फ उठाएंगे। मैं भी भंडारे के लिए लाइन में लग गया। भंडारे में लाइन की व्यवस्था ठीक रहे इसके लिए कई साईं भक्त देखभाल कर रहे थे। तभी दो हिजड़े लाइन में न लगकर सीधे भंडारे के पास पहुंचने लगे। कार्यकर्ताओं ने रोकने की कोशिश तो हिजड़े गुस्से में अपनी अदा दिखाने लगे। हिजड़े चीखने लगे... मुझे रोकने की कोशिश कर रहे हो... मुझसे बदतमीजी कर रहे हो... मुझे जानते नहीं तुम लोगों को देख लूंगा। लेकिन साईं भक्त भी मानने वाले नहीं ... जय साईं, जय साईं कहते हुए हिजड़ों को आगे जाने से रोक दिया। आखिरकार गाली गलौज करते हुए हिजड़े वहां से निकल लिए। मैं इस वाकये का गवाह था... सोचने लगा आखिर हिजड़े दादागीरी पर क्यों उतर आते हैं? भंडारे में खाया और घर आकर सो गया। सुबह नींद खुली तो घर की घंटी बजी। देखा एक हिजड़ा खड़ा था। कह रहा था/रही थी घर में बच्चा हुआ है पैसे निकालो। मैंने कहा भई बच्चा हुआ तो तुम्हें पैसे क्यों दूं। हिजड़ा- तुम्ह

वो क्यूं चला गया?.

शादी के 18 साल और बड़ी मन्नतों के बाद एक बेटा हुआ। बेटे के बाद तो भगवान ने झोलियां भर दी एक के बाद एक तीन बेटियों से घर भर गया। अब तक सास की तानों से परेशान थी अब भगवान ने सबकुछ दे दिया। बस थोड़ा कचोट तो होगा ही कि भगवान ने बेटा एक ही दिया... काश! तीन बेटियों में से एक बेटा होता????? घर में भेदभाव की नींव भी पड़ गई। बेटियों से लगाव न हो ऐसी बात नहीं थी। तीनों के लालन पालन में कोई कमी भी नहीं हुई लेकिन बेटा तो बेटा ही था। घर का अकेला चिराग वो भी शादी के 18 साल बाद जो आया था। बेटे को ज्यादा तवज्जो और बेटियों को थोड़ा कम। बेटे की पढ़ाई महंगे कॉन्वेंट स्कूल में बेटियों की पढ़ाई दिल्ली के सरकारी स्कूलों में। बेटे को लाड़ प्यार ने बिगाड़ दिया मन आसमान छूने लगा। बड़े घर के बेटों के बीच पढ़ाई करके खुद को भी करोड़पति समझने लगा था। बेटियां हमेशा कायदे में रही घर के हालात के मुताबिक बिल्कुल फिट। बेटे ने सपना देखा.... सपनों में छलांग लगाई... आसमान में उड़ता रहा। बेटा घर के हालात से बेफिक्र रहा या फिर मां-बाप ने हालत समझने ही नहीं दिया। नौंवी क्लास तक आते आते बेटे की इच्छाओं पर कुठाराघात होने लगा।

पीसीआर वैन किसके लिए ?

दिल्ली पुलिस का एक चेहरा देखा तो सन्न रह गया। बीते साल नवंबर में कनॉट प्लेस में था। फुटपाथ पर दुकानदारों का मजमा लगा था। दुकानदार और खरीदार में मोल तोल कर रहे थे। ठीक उसी जगह पर सड़क किनारे पुलिस की पीसीआर वैन खड़ी थी। कुछ पुलिस वाले भी दुकान पर सामान देख रहे थे। एक महिला पुलिसकर्मी भी मौजूद थीं। ठीक उसी वक्त एक दुकानदार को दो ग्राहकों ने तड़ातड़ थप्पड़ जड़ दिए। फिर देखते ही देखते तीन चार दुकानदार जमा हो गए और दोनों ग्राहकों की जमकर धुनाई शुरू कर दी। माहौल बिल्कुल फिल्मी था। स्टाइल में मारपीट, गाली- गलौज हो रही थी। रंग बिरंग की गालियां पड़ रही थीं। मैं भी सड़क पर खड़ा होकर तमाशबीन बन गया। मेरी नजर उन पुलिसवालों की तरफ गई मेरी तरह ही तमाशा देख रहे थे। मुझे लगा अब पुलिस वाले हस्तक्षेप करेंगे। दोनों पक्ष को मारपीट से रोकेंगे। लेकिन ये क्या पुलिस वाले तो निकल लिए। जो पुलिसवाले अब तक खड़े थे वो जाकर पीसीआर वैन में बैठ गए और वैन आगे बढ़ गई। मैं सन्न रह गया। ये कैसी पुलिस ?